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उपनिवेश

मेरा पक्ष...
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उपनिवेश
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मेरा बचपन ‘टोला’ में कटा. आजकल ‘पुरा’ में रह रहा हूँ. मैं जब जीआईसी में पढ़ता था तो मित्रों से ‘कहाँ रहते हो’ मुद्दे पर बातें होती थीं. मित्र बताते…शांति कालोनी,विजय कालोनी…फ्रेण्ड्स कालोनी आदि. टोला, पुरा की तुलना में ‘कालोनी’ मुझे आकर्षित करती थी. मुझे लगता था टोला पुरातन पंथी है और कालोनी में रहना ज़्यादा सम्मानजनक और प्रगतिशीलता की निशानी है.

फिर एक दिन मेरी मुलाक़ात ‘उपनिवेश’ शब्द से हुयी. उपनिवेश, उपनिवेश देश, उपनिवेशवाद से होता हुआ जब मैं वही पुरानी आभिजात्य स्मृति में बसी ‘कालोनी’ पहुंचा तो मेरा मन पूरी तरह से इस शब्द के प्रति नफ़रत से भर चुका था. बहरहाल आज भी मेरे परिचित कालोनी में रहते हैं. और उपनिवेशी कालोनी शब्द से हमारे संबंधों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. गुलामी,अत्याचार से जुड़े शब्द और संज्ञाएं हमें अतीत से जोड़कर हमारे घाव ज़रूर हरा करती हैं, लेकिन ज्ञान और विवेक का विकास हमारी संवेदना को ज़्यादा मुक्त आकाश देकर हमारे पूर्वाग्रह को शिथिल बनाकर ज़्यादा लोकतंत्री बनाता है.  हम जल्द ही इस धारणा से मुक्ति पा लेते हैं कि उपनिवेश का मतलब “वह जीता हुआ देश जिसमें विजेता राष्ट्र के लोग आकर बस गए हों अर्थात कालोनी!


आज ही तो पढ़ा…
यू एन में भारत के स्थायी प्रतिनिधि सैयद अकबरूद्दीन ने कहा कि उपनिवेशवाद से मुक्ति पाने के क्रम में “चागोस आर्किपेलागो” द्वीप पर संप्रभुता बहाल करने के मॉरीशस के प्रयास में हम अपना सहयोग कर रहे हैं. इतिहास बताता है कि ब्रिटेन ने 1965 में ही इस द्वीप को मॉरीशस से अलग कर अपने पास रख लिया था. जबकि मॉरीशस को 1968 में आज़ादी मिली.

भारत ख़ुद ब्रिटिश उपनिवेशवाद का शिकार रहा है. जानता है कि कोई देश उपनिवेशकाल के दौरान क्या खोता है? अतः उसने संयुक्त राष्ट्र महासभा के उस प्रस्ताव पर ब्रिटेन के ख़िलाफ़ मतदान किया है, जिसमें ब्रिटेन एवं मॉरीशस के बीच हिन्द महासागर के उपरोक्त द्वीप को लेकर चल रहे दशकों पुराने विवाद पर अंतरराष्ट्रीय न्यायालय की राय की मांग की गई है.

मुझे व्यक्तिगत रूप से उपनिवेशवाद से जुड़े मुद्दे आज भी न जाने क्यों गहरे प्रभावित करते हैं. अंग्रेज़ों के अत्याचार और कथित रूप से उनकी फूट डालो राज करो नीति के सुने-पढ़े किस्से मुझे मानवता पर कलंक की तरह लगते हैं. मुझे मालुम है कई देशों ने उपनिवेशकाल के दौरान ख़ूब तरक्की की. ज़्यादा प्रशासनिक दक्षता का उन्हें लाभ मिला. तक़नीक का भी मानवीय दृष्टि से अधिक लाभ मिला. लेकिन इसी दौरान कूटनीति के तहत उन पर सांस्कृतिक,आर्थिक…संप्रभुता संबंधी अत्याचार भी हुए. ऐसे में तुलनात्मक रूप से उन उपनिवेशी राष्ट्रों को नुक़सान ही हुआ. उनकी विरासत को छीनकर उन्हें ‘अपने रंग’ में रंगा गया 

यही सब आज भी जब पढ़ता हूँ तो लगता है ज्ञान के इस महा विस्फ़ोट काल में भी आज भी लोग राष्ट्र मध्ययुगीन बर्बरताओं में जी रहे हैं. आख़िर ब्रिटेन उपरोक्त द्वीप को मॉरीशस को सौंपकर उसकी संप्रभुता की क़द्र क्यों नहीं करता ?  नक्कारख़ाने में तूती की आवाज़ की ही तरह ले लें मैं अक्सर सोचता हूँ क्या अपने जीवन में मैं कोई ऐसी आवाज़ सुन पाऊंगा जो सम्पूर्ण मानव जगत की आवाज़ हो ? या फिर क्या कोई ऐसा सिद्धांत ही प्रतिपादित होगा जिसमें सबके भले से भला हो ?

ख़ैर ख़्याली पुलाव पकाना हमारा मक़सद नहीं. मुझे एक भारतीय होने के नाते अच्छा लगा कि उपरोक्त मुद्दे पर हमारा राष्ट्र 15 के मुक़ाबले उन 94 मतों में से एक था जो मॉरीशस के पक्ष में पड़े थे. चलते-चलते एक बात और जोड़ना चाहूंगा, क्या मानव सभ्यता कोई ऐसा रास्ता निकालेगी, जिसमें किसी पिछड़ी सभ्यता को उपनिवेश बनाने की ख़ातिर नहीं ‘साथ लेने’ की ख़ातिर रोशनी प्रदान की जाए !

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