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हिन्दी में तू-तू…मैं-मैं…

मेरा पक्ष...
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भाषण की राजनीति – 4
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हिन्दी में तू-तू…मैं-मैं…
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( 11-Sep-15 )
भाषण की राजनीति का सर्वाधिक प्रभावी स्वरूप होता है उसका स्थाई राग. यानि वो बात जिसकी पुनरावृत्ति हर भाषण देने वाला करता है. चाहे अवसर नितांत विपरीत क्यूँ न हो ? जैसे आज का कांग्रेसी जब भी…जहां भी बोलेगा ‘इंदिरा जी’ की शहादत को ज़रूर याद करेगा. बात जब ‘मोदी सर’ की होगी तो वे मौखिक रूप से ‘चाय’ ज़रूर बेचेंगे.
कई बार सोचा सिर पर ‘कफ़न’ बांधकर ‘सर’ से मिलूँ और मौक़ा देखकर उनके कान में फ़ुसफ़ुसाऊँ…” सर बहुत हुआ.10वाँ विश्व हिन्दी सम्मेलन है. आप यहाँ भी चाय…! ”
सफलता के शीर्ष पर अतीत को याद करना कोई गुनाह नहीं. लेकिन इतिहास गवाह है ‘चाय’ की छोड़िए विषम परिस्थिति में इंसान ने ‘ख़ून’ बेचकर अपने संघर्ष को ज़िंदा रखा है. हज़ारों माँ ऐसी हैं जो आज भी बर्तन माँज कर,सिलाई आदि कर अपने परिवार को संबल प्रदान कर रही हैं.
शायद कलियुग में राजनीति ही एक मात्र ऐसा क्षेत्र है जहाँ ‘इमोशनल ब्लैकमेलिंग’ की शिकायतें सर्वाधिक होती हैं. कोई ‘शहादत’ तो कोई ‘चाय’…यही नहीं हमारे नीतीश बाबू ‘बिहारी अस्मिता’ के नाम पर ‘डीएनए’ एकत्रित करते फिर रहे हैं. अब राजनीति करे भी तो क्या ? आज़ादी के इतने दिनों बाद भी आम जनता की यथास्थिति और उससे उपजे जनाक्रोश को ऐसे ही इमोशनल वाक्यांश ही तो ‘वोट’ में बदल सकते हैं.
भाषण वो चाहे राजनीतिक हो या फिर अन्य उसकी प्रभावोत्पादकता के लिए ज़रूरी है कि जो बोला जाए उसके केन्द्र में भाषणकर्ता भी हो. इससे ‘कहानी’ सच्ची और जनता पर उसका इम्पैक्ट अच्छा बनता है.
मोदी जी और उनकी टीम इस काम में वाक़ई माहिर है. लेकिन मोदी जी से हमें एक शिकायत है वे राजनीति के लोन ( क़र्ज़ ) को बहुत जल्दी ‘चुका’ देते हैं. विपक्षी पार्टी को ‘कहे’ का पूरा ‘ब्याज’ भी नहीं मिल पाता है. अभी सोनिया माता ‘हवाबाज़’ को राजनैतिक रूप से ‘कैश’ भी न कर पायी थीं की मोदी जी ने ‘हवालाबाज़’ का जुमला उछालकर हिसाब नक्की कर दिया.
मोदी सर ने 10 वें विश्व हिन्दी सम्मेलन के उद्घाटन के अवसर पर एक बात बड़ी मज़ेदार कही – “गुजरात के लोग गुजराती में झगड़ा नहीं करते.जब भी उन्हें ‘तू-तू…मैं-मैं’ की आवश्यकता पड़ती है तो वे ‘हिन्दी’ का सहारा लेते हैं. क्यूँकि गुजराती में भाव पूरी तरह से नहीं उभर पाते और इस मायने में हिन्दी ‘दमदार’ लगती है !
अब नीतीश बाबू की तरह हम उनकी इस बात को ‘हिन्दी अस्मिता’ से तो नहीं जोड़ेंगे लेकिन कहूँगा की शोध के लिहाज़ से मोदी जी की यह बात है बड़ी हैरतअंगेज !
मेरा आज भी मानना है कि अवसर हिंसक हो या फिर संवेदनात्मक ! अभिव्यक्तियाँ मातृभाषा में ही अंतिम तौर पर ‘दमदार’ होती हैं. सौंदर्य की दृष्टि से ‘यू ब्लडी’…’रास्कल’ कहते किसी भारतीय की जगह कोई अंग्रेज़ ज़्यादा हैण्डसम लगता है. गालियां मातृभाषा में ही ‘दिली’ लगती हैं !
एक बार हम मित्रों के मध्य भाषा और शब्दकोश था. हम यूँ ही बहस कर रहे थे. ‘उर्दू’ में मिठास ( शीरीं ) है…’अंग्रेज़ी’ में अभिवादन की छटाएँ मनोहारी हैं…यह लगभग हमारे बीच तय हो चुका था…’हिन्दी’ के बारे में अंतिम राय तब नहीं बन पायी थी…मैं ‘हिन्दी’ को विनम्रता और संवेदना के खाते में दर्ज़ करने का इच्छुक था … !
काश ! मोदी सर ने पहले हमारा मार्गदर्शन किया होता ?
मोदी जी के ‘कट आउट’ के नीचे कहीं दब गए ‘हिन्दी’ के मोनोग्राम को याद करते हुए मैं सोच रहा हूँ कि हिन्दी का उद्धार कैसे हो ?
जहाँ बाप की छाती सिर्फ़ इस बात से फूलकर 56 इंची हो जाती हो कि मेरा बेटा ‘छिहत्तर’ नहीं ‘सेवन्टी सिक्स’ समझता है . वहाँ क्या किया जा सकता है !
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