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ईशू उवाच
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कालबुर्गी
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( 01-09-15 )
कालबुर्गी की हत्या निंदनीय है. सभ्यता और सूचनाक्रान्ति के इस महादौर में तो और भी ज़्यादा भर्तस्ना योग्य.
कन्नड़ का यह विचारक मूर्तिपूजा,अंधविश्वास की ख़िलाफ़त करता था. आधुनिक शब्दावली में वे प्रगतिशील थे.
परंपरा और प्रगतिशीलता का द्वंद्व शाश्वत है. धार्मिक परंपराएं प्रगतिशीलता को अपने मार्ग का कंटक मानती हैं.और अक्सर ‘प्रगतिशीलताएं’ परंपराओं के हाथों मारी जाती रही हैं.
धर्म एक ‘सत्ता’ है. सत्ताएं आसानी से अपनी कुर्सी कहाँ छोड़ती ?
आज के ‘4G’ युग में परंपरा और प्रगतिशीलता दोनों का बाज़ार है. कार्पोरेटी स्वरूप है. अपने-अपने हित हैं.और हैं अपने-अपने आर्थिक साम्राज्य को बचाने की जद्दोज़हद.’हत्याओं’ को हम इसी कार्पोरेटी कल्चर का एक अंग मान सकते हैं.
मीडिया समाज के किसी रूढ़िवादी ‘गैंग’ पर किसी ‘दाभोलकर’…’कालबुर्गी’ की नृशंस हत्या की शक की सुई टिका कर ‘उस्ताद’ बनने की चेष्टा ज़रूर करता है लेकिन अगले ही पल ‘ब्रेक’ लेकर ‘सनी लियोनी’ को दिखाकर वह भी इसी ‘हत्या’ के बाज़ार में शामिल हो जाता है.
‘पाश’ की कविताओं से सजी श्रद्धांजलियाँ हमारा ‘Nice’ ऐंटरटेन तो करती हैं लेकिन ‘परंपरा’ और ‘प्रगतिशीलता’ की लड़ाई में सार्थक हस्तक्षेप नहीं कर पातीं.
हम सब अपने-अपने ‘संथारा’ भुगतने के लिए अभिशप्त हैं.
रही बात क़ानून की तो उसकी भी अपनी चाल है, ढाल भी !
…तो आइए हम आप भी ‘कालबुर्गी’ की हत्या से उपजे अपने-अपने वैचारिक आक्रोश को किसी लियोनी-छाप ‘कण्डोम’ का विज्ञापन देखकर ‘संतुलन’ साधने का प्रयास करें !
बाज़ारू हम भी तो हुए हैं सर !
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