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ईशू उवाच

ईशू उवाच

ईशू उवाच

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# क्या राष्ट्रपति जी,क्या मोदी सर,क्या केजरी क्रांतिकारी सब भारत की पाक पर विजय को ‘विश्वकप’ जीतने के अंदाज़ में सेलिब्रेट कर रहे हैं / फुनिया रहे हैं/ट्विटिया रहे हैं ! कोई भी क्रिकेट रूपी पूंजीवादी जोंक को रेखांकित नहीं करता ! उफ़ मैं भी कहाँ इनसे न सही ‘उनसे’ बदलाव की आशा कर बैठता हूँ !

# सत्ता परिवर्तन लोकतंत्र की ख़ूबसूरती है ! बेशक !!

लेकिन कभी-कभी मुझे लगता है यह उन स्वप्नदर्शियों की अकाल मौत कारण भी बन जाती है जिनके सीने में किसी बड़े ‘परिवर्तन’ की आग धधक रही होती है !

चुनावों में जीत-हार का गणित अक्सर अधूरी क्रांतियों की कब्रगाह बन जाता है !

# प्रेम का अतिरेक प्रदर्शन हमेशा ही रागात्मक संबंधों की स्वाभाविक परिणिति नहीं होती ! यह प्रायश्चित्त का सर्वाधिक पवित्र स्वरूप भी होता है !

# जीवित/मृत “आदर्शों” से दूरी बनाकर ही प्रेरणा लें ! क्रूर सत्ताएं उनके “काँधे” पर बंदूक रख कर आपको ‘निशाना’  सकती हैं / बना रही हैं ! अब वो चाहे “गांधी” के कथित पदचिन्हों पर चलने/चलाने का मामला हो या फिर “दिल्ली” चुनाव में “किरण बेदी” के कथित “मास्टर स्ट्रोक” का !

# “…जब आंदोलन उभार पर होते हैं उस समय तो बहुत सारे लोग यानी लफंगे तक क्रांतिकारी हो जाते हैं.लेकिन क्रांतिकारी की वास्तविक ताक़त तब जाहिर होती है,जब वह ठंडे और पीछे हटने वाले समयों में भी खड़ा रहता है.”

-लेनिन

भाजपा/मोदी लहर को भी मैं ऐसा ही ठंडा समय मानता हूँ ! केजरीवाल की राजनीति क्रांति के ज़्यादा नज़दीक है ! केजरी को ऐसे ‘ठंडे’ समय में कुछ लोगों ने छोड़ा उन्हें मैं ‘लफंगा’ तो नहीं कहूँगा ! लेकिन बेहतर होता आज ‘दिल्ली’ की लड़ाई में वे उनका साथ देते ! ‘जीतने’ वाले नहीं ‘हारने’ वालों का ‘जूझना’ इतिहास बनाता है !

द्वंद्व

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लिखना और जीना. अलग प्रक्रियाएँ हैं. फिर स्वयं के ‘लिखे’ को तो जीना बेहद अलग होता है.

कुछ लोग बहुत अच्छा लिखते हैं. लेकिन उनका व्यवहार बेहद गंदा है. अमानवीय. लेकिन मेरा ‘द्वंद्व’ यह है कि मैं किसी के व्यक्तित्व के आधार पर उसके ‘कृतित्व’  नहीं ‘कसता’ !

…और इसी बिंदु पर आकर मैं दो भागों में बँट जाता हूँ.मैं एक साथ…उसके ‘लिखे’ से प्यार और उसके ‘जिए’ से नफ़रत करने लगता हूँ.

# फ़िल्म अभिनेत्री शबाना आजमी कहती हैं…”जब भी मेरी माँ के हाथों में कंगन नहीं होते, हम समझ जाते थे कि घर पर मेहमान आने वाले हैँ…!”

मेरे लिए भी ‘गिरवी’ शब्द बेहद जाना पहचाना है.मुझे नहीं मालुम जब शबाना जी की माँ मेहमानों की ख़ातिर-स्वागत के वास्ते अपने कंगन गिरवी रखती थीं तो पुनः उन्हें ‘छुड़ा’ लेती थीं या नहीं ? मेरे परिवार के लिए तो ‘गिरवी’ और ‘डूबना’ एक ही सिक्के के दो पहलू थे !

# “… पूँजीवाद के कई पहलुओं का अध्ययन करने के बाद मैं व्यक्तिगत तौर पर अंकल सैम ‘अमेरिका’ की नीतियों का समर्थन नहीं करता.लेकिन आज मुझे अच्छा लगा.मैंने पढ़ा गणतंत्र दिवस के मौक़े पर ओबामा / मिशेल ओबामा तो होंगी उनकी बेटियाँ साशा/मालिया नहीं होंगी. क्योंकि उनकी पढ़ाई चल रही है.

काश ! हम निर्लज्ज भारतीय अपने बच्चों की शिक्षा के संदर्भ में इतने ही समर्पित बनें ! “

# हिंदू महिलाएं “इतने” बच्चे पैदा करें कहने वाले ज़्यादातर ऐसे लोग हैं जो अब कुछ “करने” लायक नहीं रहे ! स्वेक्षा से ही सही !

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