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होली

मेरा पक्ष...
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होली
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सुना है…आपके यहाँ अब भी रंग में ‘ सराबोर ‘ किया जाता है ?
दोस्त,मैं कुछ ‘उदासियों’ को खैंचकर लाऊँगा…’समझ’ लेना उनको !

जाओ और जाकर चुपके से ‘उसे’ रंग में सराबोर कर दो,
कुछ ‘उदासियाँ’ बिना ज़बरदस्ती ‘लाइन’ पर नहीं आतीं !

तटस्थ बन देखता रहा ‘रंगों’ को आते जाते मगर,
मन के ‘रजिस्टर’ पर कुछ स्मृतियाँ दर्ज हो ही गईं !

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मैं अब होली नहीं खेलता तो क्या ?
…मुझे अब भी पसंद हैं रंग
लोगों का इक-दूजे को रंगना …

…मैं इस तरह कर लेता हूँ
अपने अतीत में विचरण !

***

…मैं वो रंग कहाँ से लाऊँ ?
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जब तुम हँसते हो
इक रंग उभरता है
तेरे चेहरे पर…

मैं
अपने मन के कमरे की दीवारों पर
तेरी हँसी टाँगना चाहता हूँ…

कल मैं बाज़ार गया
रंग लेने
दुकानदार को दिखाया
तितलियों का कैटेलौग भी…

दोस्त !
मैं ख़ाली हाथ
बाज़ार से लौट आया हूँ…

कहाँ से लाऊँ मैं तेरी
हँसी जैसा रंग…?

***

रंग…
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तुमने पूछा –
“…आपका मन पसंद रंग ? “

मैंने बताया –
“…सफ़ेद…! “

…अरे आप चुप क्यों हो गए ?

अब समझा…
मेरा मन पसंद था
तो क्या ?
मुझे ‘होली’ पर
इस रंग का ज़िक्र
नहीं करना था…

ऐ मिरे नादाँ दिल…
कुछ कहने से पहले…
‘अवसर’ तो देख लिया कर…!

***

वर्गीकरण
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मैंने कहा –
यूँ होली के बहाने
इतना पानी बरबाद मत कीजिए…
कि बचा ही कितना है पीने का पानी ?

अगला हत्थे से उखाड़ गया…
बकने लगा आंय-शांय
कि
चल…
बड़ा आया पानी का ख़ैर-ख्वाह…!

हमारे कुछ कैमरे भी तोड़ डाले उन्होंने…
उनकी सेना ने…!

बेहद ख़तरनाक़ समय से गुज़र रहे हैं हम
अब निंदक के ‘नियरे’ रखने का समय नहीं है !

सही बात कहने पर भी
ठहराया जा सकता है आपको
धर्म विरोधी !

पानी से भी ज़्यादा
चिंता की बात यह है…

उचित बात के भी
अब होने लगे हैं
जातिगत…धार्मिक वर्गीकरण !

***

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