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हाँ ! मैं नपुंसक हूँ…

मेरा पक्ष...
मेरा पक्ष...
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कुछ भावनाएं आप तक पहुंचा रहा हूँ …
मेरी इच्छा है …मैं आपके माध्यम से इस घटना से पीड़ित लोगों के दुख को बाँट सकूँ !
-प्रदीप कुमार पालीवाल
( स्वतंत्र लेखक / कवि )
इटावा ( उ.प्र.)
09761453660

हाँ ! मैं नपुंसक हूँ…
=================

स्थान,दिलसुखनगर
ब्लास्ट !
12 मरे , 70 से ज़्यादा घायल…
…और मैं लिख रहा हूँ …मात्र कविता !

हाँ ! यह सच है…
हँस सकते हैं…आप
और इससे पहले
आप जड़ें मुझ पर तोहमत
मैं ख़ुद स्वीकार करता हूँ
कि …
हाँ ! मैं नपुंसक हूँ …

लेकिन मुझे उम्मीद है
कि देश के गृहमंत्री
लोकतंत्र प्रदत्त सुविधाओं के बावज़ूद
अपने ताबड़-तोड़ दौरे
और घायलों से मिलने के बाद भी
जो काम न कर सके,
वह मेरी कविता करेगी…
रखेगी फ़ाहा…
‘आतंक’ से पीड़ित हर घाव पर…
ज़्यादा अच्छे ढंग
और तटस्थ निष्पक्षता से !!

सियासत,
धार्मिक सियासत…
की होगी अपनी मजबूरियां !
लेकिन मेरी कविता
करेगी ज़्यादा प्रभावी ढ़ंग से
आतंक का मुक़ाबला…
क्यूंकि –
कविताएँ ‘वोट बैंक’ का मोहताज़ नहीं होतीं
और न ही कविताओं को आता है
धर्म की सियासत करना !

हाँ ! कविताओं को आता है
सार्थक हस्तक्षेप करना…
गहरी संवेदना के साथ…!

और जैसा कि हमें मालुम है –
‘शक्ति’ के मामले में
संवेदनाएं
हमेशा इक्कीस (21) रही हैं !

सुनो आतंकियों !
तुम क्या समझते हो ?
कि दिलसुखनगर को
‘दिलदुखनगर’ में
तब्दील कर
तुम अपने नापाक़ मंसूबों में
क़ामयाब हो गए ?

नहीं मेरे दोस्त…
क्या तुम्हें याद नहीं ?
यही सब कुछ तो तुमने किया था…
लुंबनी पार्क में…
गोकुल चाट शॉप पर…!

क्या हुआ ?

रफ़्तार ज़िंदगी की कम नहीं होती !

हाँ…! कुछ घाव ज़रूर
देते रहते हैं दर्द…
देर तक !
गहरी टीस के साथ !

आतंकियों !
तुम्हारा जो भी मक़सद हो
धन…दहशत…हूरें…सत्ता…

इतना तय है
हर एक विस्फोट के बाद
कुछ माँगें ,
कुछ कोखें ,
कुछ आकांक्षाएं ,
सूनी करके
तुम ज़रूर ख़ुश होते होगे
ख़ुद में…

करते होगे चीयर्स !

लेकिन इतना तय है
कि निर्दोषों का सामूहिक कत्ल
तुम्हें भी आजन्म चैन से नहीं सोने देगा !

…कल किसी रात में
जब तुम्हारे ‘टिफ़िन-बम’
से विधवा हुई स्त्री
तुम्हें झकझोरेगी
और पूछेगी अपना कुसूर
तो इतना तय है
तुम खो बैठोगे
शेष रात की नींद
बावज़ूद शाही शयन कक्ष के !

…और बेशर्म सियासत !
जब तुम ‘ब्लास्ट’ पर
बहा रही होती हो घड़ियाली आँसू
…और कर रही होती हो
‘क्लीन चिट’ पाने का प्रयास
कि
तुमने तो ‘सूचना’ मिलते ही
कर दिया था –
राज्यों को अलर्ट !

तो हम तुम्हारे मक़सद को नहीं ताड़ पाए ?

नहीं !
लोकतंत्र के हत्यारों !!

यह ठीक है कि
एक अकेली कविता
तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकती…

…नहीं धंस सकती
तुम्हारी निर्लज्ज गैंडे सी खाल में
कविता की मासूम उंगली…

लेकिन इतना तय है
ग़ुरूर के पहाड़
कितने भी ऊँचे
सुरक्षित क्यूँ न हों

कविता उन्हें भी रौंद सकती है
अपने नन्हें
लेकिन मज़बूत पैरों से…!

तो जब भी…

कहीं भी होगा ‘घाव’
मैं लिखूंगा कविता…

उजागर करूंगा
मानवता के दुश्मनों के षड्यंत्रों को
‘नपुंसक’ कहलाने के
आरोपों के बावजूद…!!

***

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