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…मेरे ट्विट और फेसबुक कमेंट / पोस्ट !

मेरा पक्ष...
मेरा पक्ष...
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…मेरे ट्विट और फेसबुक कमेंट / पोस्ट !

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…यह ठीक है कि लोकतंत्र का जीवन किसी के ‘कलंकित’ अतीत से ‘चिपके’ रहकर जारी नहीं रह सकता ! क्यूंकि किसी की ‘भूल’ किसी को ‘संदेह’ का लाभ दे सकती है ! किसी की ‘साम्प्रदायिक’ सॊच से किसी के कथित ‘सर्वधर्म समभाव’ वाले प्रदर्शन को ‘क्लीन चिट’ नहीं मिल जाती ! लेकिन जब ‘घंटों’ चले हिंसा के नंगे नाच पर यूरोपीय संघ मात्र ‘दो’ घंटे में मोदी के बहिष्कार को ख़त्म करने में सहमत हो जाता है तो माथा ठनकना स्वाभाविक है.
ये कुछ नहीं बस पूँजीवादी संभावना के ‘भविष्य’ को देखकर किया जाने वाला चतुर ‘निवेश’ है.लेकिन ख़तरा यह है कि ‘पूँजीवाद’ अपने हितों की रक्षा की ख़ातिर सत्ता में आने के उन ‘तरीक़ों’ को भी जायज़ ठहराने लगता है तो कतई तौर पर अलोकतांत्रिक हैं !

@ काश ! मैंने हारवर्ड के केनेडी स्कूल में कैग विनोद राय को यह कहते :
“हम भ्रष्टाचार का सफ़ाया करने में सक्षम न हों लेकिन हमारा प्रयास साठ-गाँठ वाले पूंजीवाद के द्रष्टांतों को उजागर करना है ! सरकार को उद्यम को समर्थन देते दिखना चाहिए …न कि उद्यमियों का ! ”
…सुना होता !
दरअसल मेरी तमन्ना रही है कि मैं ‘अभी भी’ किसी को ख़ूबसूरत आम-जन सापेक्ष ‘सच’ बोलते सुनूं !!
सैल्यूट ‘राय’ सर !!!
@ एनडीए संयोजक शरद यादव ‘मोदी’ के पीछे कॉरपोरेट लॉबी का हाथ मानते हैं !
यही सच है !
‘कॉरपोरेटी पूँजीवाद’ निजी आर्थिक मंसूबों के लिए सत्ता परिवर्तन में विश्वास रखता है ! और वह इस बात की परवाह नहीं करता की ये परिवर्तन ‘तुष्टिकरण’ की उँगली थामकर हो या फिर ‘साम्प्रदायिकता’ की छाती पर चढ़कर !

@ अब इसे विडंबना ही कह सकते हैं कि जब कोई ‘आतंकी’ अपने मिशन में क़ामयाब हो जाता है तो वह ‘वहशी’ नाच करता है लेकिन हम उसे उसके ‘अंजाम’ तक पहुंचा कर ‘कर्फ्यू’ झेलते हैं !
– ईशू

@ बहन ( भाई से ) – लड़का कैसा है ?
भाई ( बहन से ) – लड़का अच्छा है , इंजीनियर है , देखने में फ़िल्म का हीरो लगता है .
बहन – कौन सी फ़िल्म का ?
भाई – पा !

…यूँ तो ऊपर जो कुछ लिखा वह ‘चुटकुले’ ( जोक्स ) के अंतर्गत आता है ! इसे पढ़कर आपको हंसी आना चाहिए ! लेकिन सचमुच ऐसा हुआ तो मुझे आपके ‘सेंस ऑफ़ ह्यूमर’ अफ़सोस होगा ! मज़बूरी को हंसी का पात्र नहीं बनाते !

अनुपम सर ! मैं इस दुनिया से बेपनाह मुहब्बत करता हूँ …बस जहां कुछ ग़लत देखता हूँ रेखांकित कर देता हूँ !

@ “प्याज” सलाद ही नहीं …मुद्दों का ‘हाईजैकर’ भी है ! सत्ता में पुनः वापसी का ‘ब्रेकर’ भी !
@ “प्रतिस्पर्धी असहिष्णुता ! ”
वाह ! शशि थरूर सर !
क्या शब्द गढ़ा है ? क्लैपिंग !!
शशि जी,नंदी और हासन विवाद को मिक्सअप न करें.दोनों की पृष्ठभूमि जुदा है ! जहां ‘नंदी’ बौद्धिक भ्रम के शिकार हैं वहीं ‘विश्वरूपम’ का मामला ‘तुष्टिकरण’ और ‘जयलालिताई’ अहं को दर्शाता है !इसमें ‘प्रचार का लाभ’ भी निहित है !
…और जहां तक आपके द्वारा बेहद सतर्कता से गढ़े गए इस “…समाज प्रतिस्पर्धी असहिष्णुता की संस्कृति बनता जा है …” कथन का प्रश्न है …आप क्या समझते हैं ? आप जैसे ‘कैटिल क्लास’ के प्रवक्ता ‘पेड न्यूज़’ के सहारे जो भी ‘बकेंगे’ समाज उसे आसानी से ‘डाइजेस्ट’ कर लेगा ?
…नहीं सर हम ‘जानवर श्रेणी’ के लोगों ने अपनी अस्मिता की रक्षा हेतु आवश्यक भाषाई और प्रदर्शनीय ( प्रोटेस्ट ) अभिव्यक्ति के ‘औज़ार’ पैना लिए हैं ! अब ज़्यादा दिनों तक आप जैसों द्वारा कथित ‘योग्यता’ द्वारा हथियाए गए “सिंहासन” और उनके ‘उपनिवेश’ सुरक्षित नहीं रह पायेंगे ! बहुत ‘मलाई’ चाट चुके आप / आप जैसे ! अब हम ‘दोने’ चाटकर गुज़ारा करने वालों का नंबर है…!
वास्तविकता समझें सर ! …और प्लीज़ समाज को बाँटने बातें न करें…!

@ विश्वरूपम : सुना था,धर्म की जड़ें बड़ी मज़बूत होती हैं ! लेकिन यहाँ तो केवल 7 द्रश्य इसकी चूलें हिला दे रहे थे ?
@ “…जब भी लोग चीन की तारीफ़ करते हैं मुझे आत्महत्या करते एक और ‘तिब्बती’ की चीखें सुनाई पड़ती हैं !”
अरविंद जी …मैं अपने शुरुआती पत्रकारीय दौर में ‘तिब्बती’ आंदोलनों से जुड़ा रहा हूँ ! मैं मानता हूँ उनकी सफ़लता के बारे में आपके समय संबंधी दावे सही हो सकते हैं ! लेकिन एक व्यक्ति के रूप में आपको नहीं लगता कि चीन की कथित सफ़लता के दावे भ्रामक हैं ? जो चीन ‘ओलम्पिक’ की सफ़लता को अपने ‘तंत्र’ की सफ़लता बताता है वह एकांगी है ? मैं तो यहाँ तक कहता हूँ आज ‘सत्ताएं’ सही मायनों में ‘जन’ की भावनाओं का प्रतिनिधित्व नहीं करतीं ! ‘स्वार्थी’ लोगों का एक जाल होता है जो ‘सत्ता’ हथियाकर अपना ‘उल्लू’ सीधा करता है !
बस यहीं तो चूक कर रहें हैं आप सर …दरअसल आपके दिमाग़ में ‘बलिदानी’ क्रान्ति का स्वरूप मुखर है …जबकि मेरा दावा है यह भी ‘स्वार्थी’ लोगों की ही चाल होती है ! अन्यथा ज़रा सोचकर बताइये जिस आम आदमी ने ‘बलिदान’ देकर ‘स्वतंत्रता’ हासिल की होती है उसको कुछ लोगों द्वारा क्यूँ ‘हाईजैक’ कर लिया जाता है ?
@ प्रस्तावित लोकपाल विधेयक पर अन्ना जी की सोच पर मैं चुप रहूंगा ! लेकिन ‘केजरीवाल’ के आधार पर हम कहेंगे कि ‘किरण बेदी’ गुमराह हैं !
कुंभ
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मैं ‘मोक्ष’ में यक़ीन नहीं करता ! आप कह सकते हैं, मैं धार्मिक रूप से अल्पज्ञ हूँ . चलेगा . लेकिन मेरे लिए ‘मोक्ष’ के मात्र इतने मायने हैं कि विधा चाहे कोई भी हो मैं अपने ‘रचनात्मक’ कार्यों से अपने ‘आसपास’ को सुंदर बनाऊं,प्रयास करूँ…सहयोग करूँ !
@ ‘पश्चिम’ पूँजीवाद की गोद में बैठकर ‘संभोग’ से ‘समाधि’ लगाए,मुझे कोई आपत्ति नहीं ! लेकिन मैं व्यक्तिगत तौर पर उस समय अपना विरोध दर्ज़ करवाना चाहूँगा जब ‘पूर्व’ की कोई ‘संस्था’ पश्चिमी पूँजीवाद की प्रवक्ता बनकर अनर्गल प्रलाप करे !

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“डंडे के आदी हो गए हैं सूबे के अफ़सर…”
उपरोक्त को मुलायम और आजम जी का संयुक्त बयान माना जा सकता है ! बहस हो सकती है लेकिन मैं इसे खाँटी जनसापेक्ष समाजवादी तेवर कहूँगा ! लेकिन जैसे ही सपा प्रमुख यह कहते हैं : बसपा सरकार की संस्कृति के प्रदूषण से बहुत से अफ़सर बेलगाम हो गए हैं …और ‘ओवरहॉलिंग’ की ज़रूरत है …वैसे ही वह एक गंभीर मुद्दे को ‘टुच्ची’ राजनीति में बदल देते हैं !
प्रशासन पर आम जन की परेशानियों के निराकरण की उपेक्षा का आरोप लगता रहा है ! कितना अच्छा होता उपरोक्त नेता द्वय ‘अफ़सरों’ की कथित ‘योग्यता’ को शक़ के दायरे में लाकर उनकी ‘चयन प्रक्रिया’ को ज़्यादा जनसापेक्ष और संवेदनशील बनाने की बहस छेड़ते !
लेकिन हाय …संकीर्ण राजनीति….!!!
@ 30 जनवरी ’13
आज दोपहर को मैं ‘फेसबुक’ पर ‘घूम’ रहा था . तभी मेरी निग़ाह एक पोस्ट पर पड़ी…
पूछा गया था कि क्या आज के सभ्य ( ? ) समय में ‘भाँड’ शब्द का प्रयोग उचित है ?
यद्यपि ‘पोस्ट’ करने वाली देवी जी का आशय स्पष्ट नहीं था और वे ‘भाँड’ शब्द के अर्थ/अर्थों से विज्ञ थीं,उन्होंने कहा भी था कि कोई भी उन्हें ‘गूगल बाबा’ के अंदाज़ में ‘टरकाने’ की कोशिश न करे.पोस्ट उनके सभी 9-950 मित्रों को लक्ष्य करके डाली गयी थी.
पोस्ट पढ़कर मैं दुकानदारी में व्यस्त हो गया लेकिन बात दिमाग़ में घूमती रही…
‘बर्तन’ …’पात्र’ …’कुप्पा’ आदि को छोड़ भी दें तो ‘भाँड’ के तीन प्रचलित अर्थ/पर्याय हैं …1- मसखरा 2- विदूषक 3- निर्लज्ज व्यक्ति !
मैं मूलतः कवि/व्यंग्यकार हूँ . जाहिर है शब्दों से ‘खेलना’ मुझे भी भाता है . मैं शब्दों से ‘खेलता’ ही नहीं हूँ उसकी राजनीति से भी परिचित हूँ ! सो मैं अपना पक्ष रख रहा हूँ …!
यदि अभिव्यक्ति के गांभीर्य को थोड़ी देर के लिए दरकिनार कर दें तो मसखरी या विदूषकी कला के अंतर्गत ही आयेगी और ऐसे में किसी को ‘भाँड’ कहना सामान्य बात होगी . लेकिन जैसे ही ‘भाँड’ के तीसरे अर्थ ( निर्लज्ज व्यक्ति ) की तरफ़ हम बढ़ेंगे ‘भाँड’ एक ग़ाली की तरह लगेगी . चुभेगी .डसेगी .
मैं समझता हूँ समय के साथ ‘शब्दों’ के आयाम बदलते रहते हैं ! अपनी ऐतिहासिकता में ‘भाँड’ एक ‘संज्ञा’ की तरह स्तेमाल होता रहा होगा लेकिन आज इसका ‘नकारात्मक’ अर्थ ही प्रचलन में है ! सो इसके प्रयोग से हमें बचना चाहिए !
सरकारी सूची की मुझे नहीं मालुम भाँड थे / हैं . नौटंकी, नाच-गाना उनका पेशा था.द्विअर्थी संवाद उनकी ‘संपत्ति’ थे.मेरी दूकान के पास में ही बाक़ायदे ‘भांडों वाली ग़ली’ है.जहां तक ‘संस्कार’ की बात है ‘भांड’ अपने परिवार के महिला सदस्यों से कभी भी ‘भाँडगीरी’ नहीं करवाते थे.ख़ैर …!
एक बात मैं चलते-चलते और कहना चाहूँगा कि दोस्तों ! पेशेगत पहचान को स्पष्ट करतीं ‘संज्ञाएँ’ कब ‘ग़ाली’ में बदल गईं यह एक शोध का विषय है ! मैं इसे कथित ‘उच्च’ जातियों के षड़यंत्र के रूप में भी देखता हूँ !
जहां तक प्रयोग की बात है आज के सतही शैक्षिक माहौल में भाषा और उसके प्रति लापरवाही ही देखने को मिलती है ! लापरवाह भाषा शब्दों के आयामों को बदल देती है. जैसे – ‘नौटंकी’ …बक़ायदे अभिव्यक्ति की लोक-शैली है ! लेकिन जैसे ही हम कहते हैं …’साला नौटंकी करता है …’ “नौटंकी” शब्द का आयाम बदलकर नकारात्मक हो जाता है !
वैसे किसी ख़ास शब्द के पीछे अभिव्यक्त करने वाले व्यक्ति की ‘मंशा’ भी देखी जानी चाहिए !
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