मेरा पक्ष...
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मदद
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सिर चढ़के बोल रही है
बेशर्मी
फिर भी…
अभी भी बाक़ी है
खुद्दारी…संकोच की शर्म
यहाँ-वहाँ…!
यह ठीक है कि
प्यासा
कुँए के पास जाता है…
फिर भी…
इशारों में छुपी ज़रूरत की
आगे बढ़कर
की जा सकती है
आवश्यक
इंसानी मदद…!
यारों !
मदद करके
‘गाना’
जब हमारी प्राथमिकता में नहीं…
तो फिर…
कोई आए,
कहे,
गिड़गिड़ाए…
इतनी भी इच्छा क्यूँ…?
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