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समय सापेक्ष

मेरा पक्ष...
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समय सापेक्ष…!
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तुमने पूछा-
“…मैं कैसी हूँ…? ”

मैं चुप रहा…
शायद तुमने बुरा भी माना होगा !

फिर तुमने एक दिन पूछा-
“…मैं कैसी लग रही हूँ…? ”

मैंने कहा-
“…प्यारी ! ”

अब तुम ख़ुश थीं…
फिर भी
मेरी उस दिन की चुप्पी को लेकर
अब भी तुम्हारी आँखों में
कुछ प्रश्न टंगे थे…

मेरे मित्र !
मैं कैसी हूँ…
मैं कैसी लग रही हूँ…

दोनों सहज प्रश्न हैं…
मगर अलग है
दोनों की भावभूमि…

मेरे लिए…
कठिन है…
किसी के बारे में अंतिम राय सी ज़ाहिर करना…
मैं संभावनाओं को बरक़रार रखने में यकीं रखता हूँ…
कैसी हूँ…से
कैसी लग रही हूँ…
पूछा जाना ज़्यादा अच्छा है…!

मुझसे नहीं दिया जाता
कैसी हूँ…पर
फ़ाइनल रिपोर्ट सा उत्तर…

मेरे लिए हमेशा से प्रिय रहा है…
कैसी लग रही हूँ…जैसे प्रश्न…
और उनके उत्तर देना…

‘लगना’
समय सापेक्ष है…
संभावनाओं से भरी
निरंतरता है इसमें…

तभी तो चुप्पी तोड़
मैं तपाक से कह बैठा…
“…प्यारी ! ”

***

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